How free is the press summary in Hindi || How Free is The Press by Dorothy L. Sayers

 

How Free Is The Press

Dorothy L. Sayers

Summary in Hindi

प्रेस की स्वतंत्रा
इसमें कोई संदेह नहीं कि बिना स्वतंत्र प्रेस के कोई राष्ट्र स्वतंत्र नहीं रह सकता । निस्सन्देह युद्ध के दिनों में प्रेस की स्वतंत्रता पर पाबन्दियाँ लगाई जाती हैं
, परन्तु शांति के लौटने पर इन पाबन्दियों का हटाया जाना आवश्यक है ।
प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ है कि प्रेस सरकार के नियन्त्रण और सेंसर से मुक्त हो । लेखिका को लगता है इस बारे में तो ब्रिटिश प्रेस स्वतंत्र है । उसे सरकार की नीति की आलोचना करने
, भ्रष्टाचार का भाँडा फोड़ने, और सरकार को लोकमत के अनुसार चलने पर मजबूर करने तक की भी स्वतंत्रता है ।
समूचे रूप से प्रेस लोकमत के सभी रंगों को व्यक्त करता है । परन्तु अलग-अलग अंगों के बारे में ऐसा सच नहीं है । सच कहा जाए तो सरकार का सेंसर लोकमत में रुकावट नहीं डालता जितना कि प्रेस का गैर-सरकार सेंसर डालता है । प्रेस जनमत को इतना व्यक्त नहीं करता जितना कि उसका उत्पादन करता है ।
सम्पादकीय नीति
सच कहा जाए तो प्रेस स्वतंत्र नहीं है । इसकी सम्पादकीय नीति मुख्यतः दो बातों से नियन्त्रित होती है । प्रथमतः, विज्ञापनकर्ताओं के निहित स्वार्थों से, और दूसरे उस व्यक्ति या कम्पनी के धन से जो उसका स्वामी होता है । भारी संख्या में चलने वाला दैनिक पत्र अपनी आय के लिए विज्ञापनों पर निर्भर करता है । यदि वह विज्ञापनों की अपनी ऊँची दरों को उचित ठहराने के लिए अपना वितरण बढ़ाना चाहता है तो उसे अपनी प्रतियाँ उत्पादन लागत से कम कीमत पर बेचनी पड़ेगी । यदि वह विज्ञापनों से पर्याप्त धन नहीं कमाता तो वह दिवालिया हो जाएगा । इसलिए कोई दैनिक पत्र कोई ऐसी नीति का जो चाहे कितनी भी राष्ट्रहित में हो समर्थन नहीं करेगा यदि वह उसके विज्ञापनकर्ताओं के निहित स्वार्थों के विरुद्ध हो । इसका अर्थ यह हुआ कि सस्ता दैनिक पत्र जिसका प्रसारण विस्तृत है वह उस मंहगी पत्रिका से कम स्वतंत्र है जिसकी आय का अधिक भाग उसकी बिक्री से प्राप्त होता है | दूसरे, किसी समाचार पत्र की सम्पादकीय नीति उस व्यक्ति या कम्पनी के धन से निर्धारित होती है जो कि उस पत्र की आय का स्रोत हैं । नीति मुख्यतः उस मालिक की सनक या आकांक्षाओं से निर्धारित होती है ।
प्रेस की सूक्ष्म सेंसरशिप
अलग-अलग समाचार पत्रों की अपेक्षा प्रेस सोकमत को अधिक सूक्ष्म ढंग से नियन्त्रित करता है । यह नियन्त्रण लोगों के बारे में दो मूल धारणाओं पर टिका हुआ है :
( i ) कि उसमें इतनी बुद्धि नहीं है कि वह झूठ और सच में भेद कर सके ( ii ) कि यह इस बात की परवाह नहीं करते हुए कि कोई वक्तव्य सच है या झूठ यदि वह गुदगुदाने वाला हो । इसका परिणाम यह है कि प्रेस सही रिपोर्ट छापने की ओर ध्यान नहीं देता । इसकी सूचनाएँ लापरवाह और बल्कि पक्षपातपूर्ण होती हैं क्योंकि उनकी धारणा है कि पाठकों को किसी भी बात पर विश्वास दिलाया जा सकता है ।
लेखिका उन ढंगों की रूपरेखा खींचती है जिनके द्वारा प्रेस लोकमत को प्रभावित करने के लिए समाचारों और वक्तव्यों को नियन्त्रित व तोड़-मोड़ देता है । वह प्रत्येक बिन्दु को अपने अनुभव के उदाहरणों से स्पष्ट करती है ।
1. सनसनीखेज शीर्षक , गलत महत्त्व और संदर्भ का दमन : लेखिका कहती है कि एक सम्मेलन में उसने धर्मशास्त्र से सम्बन्धित 8000 शब्दों का पत्र पड़ा । परन्तु प्रेस ने उनमें से केवल 250 शब्द चुने जो वह समझते थे कि उनके पाठक समझ सकेंगे । आभास ऐसा दिया गया कि 250 शब्दों में जो हल्का-सा जिक्र किया गया था वह ही भाषण का मुख्य विषय था । जब यह मामला सम्पादकों के ध्यान में लाया गया, तो उन्होंने उस रिपोर्ट से कोई वास्ता होने से इन्कार कर दिया ।
2. तोड़ना मोड़ना : लेखिका कहती है कि विकृतिकरण प्रेस के इन्टव्यू लेने बालों की विशेष उपलब्धि है । अपने एक नाटक के प्रस्तुतिकरण के समय लेखिका पूछा गया कि उसकी भावी योजना क्या है । उसने उत्तर दिया कि यद्यपि उपन्यासों से अधिक धन प्राप्त होता है, तो उसे नाटक लिखना अधिक अच्छा लगता है । यदि उसे कोई नाटक लिखने का आदेश मिला , तो वह लिख देगी । परन्तु रिपोर्टर ने उसके वक्तव्य को विकृत कर दिया । उसने लिखा कि उसने कहा कि वह बिना आदेश के अन्य कोई नाटक न लिखेगी ।

संवाददाता की इस प्रकार के खिलवाड़ करने की आदत के कारण छापे इन्टरव्यू विश्वास करने योग्य नहीं होते ।
3. तथ्यों की सही रिपोर्ट न देना : लेखिका एक रोचक उदहरण देती है कि तथ्यों को किस प्रकार विकृत किया गया और बदल दिया गया । एक बार जब वह नृप की गार्डन पार्टी में थी, तो चोर उसके घर घुस गए । समाचार पत्रों में रिपोर्ट कुछ दिनों के पश्चात् छपी । तिथि बदल दी गई । और यह भी कहा गया कि वह उस समय आक्सफोर्ड में थी । और सही समय पर आई कि चोर भाग गए । वास्तव में घुसने वाले समाचारपत्र बाँटने वाले के आने से भाग गए थे। जिस घटना का उल्लेख किया गया वह सच थी परन्तु रिपोर्ट को सनसनीखेज बनाने के लिए तथ्य बदल दिए गए थे । 


4. तथ्यों को स्पष्ट रूप उल्टा करना : एक बार लेखिका को प्रकाश को न ढाँपने के बारे में अदालत का आदेश मिला । उसने स्पष्ट किया कि उसके नौकर ने पर्दै ध्यानपूर्वक डाले थे परन्तु पदों में ही दोष था । स्थानीय समाचारपत्र ने छापा कि मिस सेअर्ज ने कहा कि उसका नौकर पर्दे डालना भूल गया था ।
5. निरुद्देश्य व निराधार आविष्कार : एक पत्र ने बिना लेखिका से बात किए, छापा कि उसके दो मनपसन्द शुगल बागवानी व बिल्लियाँ पालना है । वास्तव में ये दोनों शुगल उसे बिल्कुल पसन्द न थे । वह रिपोर्टर का आविष्कार था ।
6. जान-खूझकर चमत्कार थोपना : लेखिका ने एक भाषण दिया था जिसमें 8000 शब्द थे। रिपोर्टर के पास भाषण की पूरी प्रति थी । परन्तु उसने सूचना दी कि उसने सवा घंटे के समय में 20,000 शब्द बोले थे । उसने चमत्कार किया , दिखाया गया क्योंकि ऐसा करना असम्भव कार्य था ।
सीधा दमन
लेखिका स्पष्ट करती है कि सम्पादकों से दुरस्ती कराना या क्षमा मंगवाना लगभग असम्भव है। प्रतिशोध के पत्र लिखे जा सकते हैं परन्तु प्राय: उन पर ध्यान नहीं दिया जाता । कभी-कभी उन्हें सम्पूर्ण रूप से छाप दिया जाता है और उसके साथ सम्पादक की टिप्पणी होती है कि छापे गये शब्द वास्तव में बोले गए थे परन्तु वक्ता समाचार पत्र के मूल्यवान स्थान पर अकेला कब्जा करने की आशा नहीं कर सकता । कभी कभी उनका निजी रूप से उत्तर दे दिया जाता है जिससे लोगों के मन पर पड़े गलत प्रभाव को दूर नहीं किया जा सकता । शायद ही कभी पूर्ण क्षमा या गलती का सुधर प्राप्त होता है । किसी भ्रामक वक्तव्य को ठीक कराना लगभग असम्भव है । लोकप्रिय किसी व्यक्ति को सूक्ष्म रूप से आभास करा दिया जाता है कि यदि उसने प्रेस को नाराज किया तो उसे इसके लिए हानि उठानी पड़ेगी । वास्तव में प्रेस के गैर जिम्मेदार रिपोर्ट करने में हल्की-सी बाधा पर संयुक्त शोर मच जाता है : यह प्रेस की स्वतंत्रता के लिए खतरा है । निस्सन्देह लोकमत को मोड़ने के लिए प्रेस द्वारा लगाए सेंसर का कोई उपचार नहीं है ।

 

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